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कविता

पुनर्नवा

प्रेमशंकर शुक्ल


कोई सघन छाया है
जो अकुलाहट में
बन जाती है
आसरा

ममता है कोई
जो अपनापा का रिश्ता
रखती है
अटूट

छूट गए को स्मृति
कर देती है
पुनर्नवा

हम कितने भी हों परेशान
भरोसे की डोर है कोई
जो बचा लेती है
जीवन
छितराने से।
 


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